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परिवार में मानव की भूमिका

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परिवार में मानव की भूमिका

पारिवारिक एवं सामाजिक नेतृत्व के कारण मनुष्यों में व्यक्तिगत रूप से एवं सामाजिक रूप से भी दया की भावना का प्रचार प्रसार हुआ।

मानवता की यही परिपाटी आगे चलकर मानव को अपना गृहस्थ जीवन सुधारने में सहायक सिद्ध हुई।

मानव जब जन्म लेता है तब वह अपने जीवन की कई अवस्थाओं को लेकर पैदा होता है।

बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवा अवस्था में वह विवाह करता है।

अपने गृहस्थ आश्रम का शुभारंभ करता है।

इसी प्रारंभ के कारण उसकी जिम्मेदारियां दायित्व और बढ़ जाते हैं।

संतान का पालन पोषण, अच्छी शिक्षा प्रदान कराना, अच्छे संस्कार देना, मर्यादित व्यवहार सिखाना आदि।

इसके साथ साथ स्त्री के भी मातृत्व धर्म के अनुसार संतान को जन्म देना उसे व्यवहारिक ज्ञान कराना उसे अपने सगे संबंधियों रिश्तेदारों नातो की पहचान कराना जीवन में सद मार्ग की ओर संतान को ले जाना।

आज हमारा विज्ञान भी यह निर्विवाद रूप से इस तथ्य को मानता है की माता के गर्भ में पलने वाले संतान पर माता के व्यवहार एवं उसके चरित्र का पूर्ण प्रभाव पड़ता है कहते हैं महाभारत काल में अभिमन्यु को चक्रव्यू का आधा मार्ग उससे निकलने की प्रक्रिया का ज्ञान मां के गर्भ में ही हो गया था।

जिस कारण वह युद्ध भूमि में आधे ही मार्ग को सरलता से भेद सका था।

अगर उसकी मां को निद्रा नहीं आती तो वह संपूर्ण मार्ग के चक्रव्यूह को भेद कर विजय श्री को प्राप्त करता।

यह इसका उदाहरण है की माता के द्वारा किए गए प्रत्येक व्यवहार एवं की गई प्रत्येक चरित्र की क्रिया का प्रभाव उसके गर्भ में पलने वाले शिशु पर पड़ता है।

आदि अनादि काल से हमारे सनातन धर्म में बाल्यावस्था से ही शिशु को उचित संस्कार एवं व्यसनों से दूर रखा गया।

इन्हीं निर्देशों का पालन करना हमें वेद पुराण हमारे ग्रंथ सिखाते हैं।

जिनके बताए गए मार्ग, वचन का पालन कर हम अपने परिवार को कुशल पूर्वक सही दिशा निर्देश देते हैं।

नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार, पाणिग्रहण संस्कार, गृहस्थ आश्रम, सन्यास एवं वानप्रस्थ जैसे क्रियाकलापों से गुजर कर जीवन यापन करना, हमारा मूल उद्देश्य बताया गया।

जिसका अर्थ था अथवा आशय था, अपने परिवार के सभी दायित्व निभा कर, उस परम तत्व की प्राप्ति करने के लिए अथक प्रयास करना, इसके लिए गृहस्थ को छोड़ना, संतान एवं परिवार का त्याग करना, इस प्रकार के त्याग का कोई औचित्य ना था।

परिवार-पालना के पश्चात मनुष्य का यही सार्थक कर्म उस परम तत्व की दिशा में एक प्रमुख कर्म कहलाया।

संतान के जन्म से लेकर पालन-पोषण, शिक्षा-रोजगार, विवाह एवं उसे भी गृहस्थ आश्रम का निर्वाह करने की शिक्षा देना एवं दिशा प्रदान करना यह कार्य मील का पत्थर साबित हुआ।

दया की भावना, उसे सृष्टि के प्रति, जीवो के प्रति, प्रेम-सद्भाव रखने की, संवेदना से ही प्राप्त हुई।

जिसे उसने सृष्टि समाज एवं परिवार के लिए उपयोग करने की योजना मे प्रयोग किया।

आगे हम मनुष्य के, समाज के प्रति कर्तव्यों का, किस प्रकार विस्तार हुआ उन विषयों पर चर्चा करेंगे।

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