जब समाज में मानवता का विकास नहीं हो पाया था, तब संसार में धर्म के स्थान पर कई मान्यताए उपस्थित रही।
मनुष्यों ने अपने अपने तरीकों से ईश्वर को मनाना, पूजना, उसे प्राप्त करने की दिशा में कार्य करने की प्रणाली को सही रूप से क्रियान्वयन किया।
मानवता एवं नैतिकता से पूर्व धार्मिक पौराणिक भक्ति का आशय अपने विभिन्न प्रारूप में उपस्थित था।
जब मनुष्य को ईश्वरीय तत्व का कोई ज्ञान नहीं था, तब उसने सृष्टि के कई तत्वों की ही पूजा करनी प्रारंभ कर दी।
वह नहीं जानता था जिन तत्वों की पूजा अर्चना वह कर रहा है वह ईश्वर कृत गुण तत्व तो है किंतु वह उस परम तत्व की प्राप्ति करा सकते हैं इसका कोई स्पष्टीकरण उनके पास नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में जीव, जंतु, वृक्ष, सूरज, चंद्रमा, तारे, ग्रह, नक्षत्र, आदि को भी आदर पूर्वक दृष्टि से देखा जाता रहा। एवं उनकी पूजा का विधान बनाया गया।
उस वक्त पूजन की इस प्रणाली को कोई ठोस आधार प्राप्त नहीं था। किंतु आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारे धर्म के ग्रह, न्यास, ज्योतिष, अंक शास्त्र, पूजन विधान के सभी नियमों को अपना अपना स्थान दिया गया। उन्हीं विधियों के अनुसार धर्म के विभिन्न प्रकार के प्रारूप हमारे समक्ष प्रस्तुत हुए।
जिन्हें हमने आज तक अपनी धार्मिक भावनाओं से अलग नहीं किया।
यह धर्म के प्रारूप सनातन धर्म, वैष्णव द्वैतवाद, अद्वैतवाद, सगुण-निर्गुण आदि धरम में रहकर अपना कार्य, अपना परिचय देता आया है। हमारा धर्म अनेकों वर्गों में बंटा है, उनके तत्व एवं नियम भिन्न भिन्न है, जिनके द्वारा हम कह सकते हैं कि हमारी धार्मिक परंपरा अत्यंत लचीली एवं कोमल एवं भावना से पूर्ण है।
सभी नियमों पर विचार करके हमारे धर्मों में नैतिकता संस्कार मर्यादित व्यवहार इत्यादि सात्विक गुणों को महत्व दिया गया। जिसके अनुसार ईश्वरीय तत्व इन्ही सात्विक तत्वों से प्रसन्न होता है। नैतिकता, छल कपट से हीन मनुष्य उसे प्रिय लगता है।
प्रपंचों से दूर रहने वाला सीधा सरल स्वभाव, उस परमपिता परमात्मा को को मनाने में सहायक सिद्ध होता है।
इन्हीं प्रकार के नियमों से धर्म एवं भक्ति का यह सलोना संसार इसी प्रकार आगे बढ़ा।
साधक अपने साधन के प्रति विभिन्न प्रकार के कार्यों द्वारा एवं पूजा अनुष्ठानों द्वारा उसे सिद्ध करने लगा।
प्रारंभिक धर्म के विभिन्न वर्गों में जब वर्गीकरण हुआ, धर्म को मानने वाले अपने विभिन्न नियमों को बनाने वाले, अनेकों अनुयाई, शिष्य, साधक एवं भक्त कहलाए।
यही धर्म की एक सशक्त मिसाल बने वेदों ने ओम अक्षर को ही परम तत्व बनाया।
वैष्णव सात्विक गुणों से, आर्य समाजी वेदों की महानता, इश्वर के सूक्ष्म तत्वों की व्याख्या करके भगवान की आराधना प्रक्रिया को बढ़ावा देने लगे। तो कहीं शंकर का द्वैतवाद, अद्वैतवाद, माया मोह नश्वर संसार से मुक्त होकर ईश्वर के चरणों में अपना जीवन लिप्त करने हेतु प्रचार प्रसार करने लगा।
राम कृष्ण के पंथ सिद्ध योगी संत महर्षि ऋषि मुनि सभी लोग अपने तप के बल से,गुफाओं में कैद होकर, बर्फ की शिलाओं में बैठकर उस ईश्वर का भेद जानने के लिए लालायित थे।
किंतु धर्म के विभिन्न प्रारूप मानव को राह बतलाते हैं। उस परम तत्व को प्राप्त करने का आनंद अलौकिक सुख कैसा है यह वर्णन करना असंभव ही बताते हैं।
धर्म का प्रचार प्रसार मनुष्यों में मर्यादित व्यवहारों संस्कारो का आँकलन आगे चलकर धर्म का विशेष सशक्त प्रारूप कहलाया।
मानवता की परिभाषा से पूर्व जो साधन परम तत्व की प्राप्ति के लिए, उपयुक्त रहे उन्हें धर्म के सात्विक नियमों में सम्मिलित कर लिया गया। और जो दिशा से हीन मार्ग नहीं दिखाते थे, उन्हें धर्मांधता एवं अंधविश्वास की श्रेणी में रखा गया। किंतु सभी प्रारूपों में इस तत्व परम परमात्मा को साधने एवं प्राप्त करने की दिशा ही सम्मिलित थी। इसी प्रकार हमारे भारतवर्ष में धार्मिकता का प्रचार प्रसार हुआ।
हम सभी धर्मों की नीतियों को उनके अनुशासन विधि नियमों को मानते हैं, उनकी निंदा भर्त्सना नहीं करते, इसी कारण हमारे धर्म में कई धर्मों के नियमों का समावेश होता गया। हमारा धर्म बहुत विशाल संवेदनशील और मानवता को की अटूट मिसाल कहलाया।
इस धर्म को इसकी पताका को भक्तों ने, संतों ने, साध्वियो ने, महर्षियो ने, किस प्रकार सुरक्षित रखा अपना सर्वस्व न्योछावर कर के उन्होंने धर्म की रक्षा की।
शालीनता को सुरक्षित रखा।
मर्यादाओ को टूटने ना दिया।
इसी श्रेणी मे स्त्रियों का सतित्व, पुरुषों का पुरुषार्थ, भक्तों की निश्चल भक्ति, निस्वार्थ भावना, किस प्रकार प्रचलित एवं प्रसारित हुई इस विषय में अगले लेख में हम चर्चा करेंगे।