सृष्टि रचना के समय जब ईश्वर ने मनुष्य को विशेष संवेदना से परिपूर्ण किया, तब उसे अपने से विपरीत जीव, जंतु, पशु-पक्षी आदि प्राणियों के प्रति, सहानुभूति एवं सांत्वना भी प्रदान की। इसी प्रकार की दया सहिष्णुता से ही वह मानव कहलाए।
सृष्टि के नियमों को निभाते हुए मनुष्यों ने सभी प्रकार के जल-थल-आकाश में विचरण करते हुए जीवो को, उनके समुचित स्थानों पर रहने का जीवन अधिकार दिया। उसके इन्हीं भावों के प्रबल वेग के कारण,हमारे संसार में नियम बना। “वसुधैव कुटुंबकम” अर्थात संपूर्ण पृथ्वी ही हमारा परिवार है।
उसी के आधार पर कुछ विशिष्ट जीवो को तो पूजन योग्य भी माना जाता रहा है।
गाय उनमें से प्रमुख माना जाता है। गौ को तो धन भी कहा गया है।उससे प्राप्त विशिष्ट पदार्थ क्या अपशिष्ट पदार्थ भी पूजन योग्य माना जाता रहा है। गाय के गोबर से घर को लीपने पोतने की क्रिया, गाय के गोबर से बनाया ईधन भोजन बनाने के लिए प्रयोग होता रहा है। अनेकों वर्षों से इस प्रकार के प्रयोग की प्रक्रिया का विधान है।
गाय से प्राप्त दूध, दही मक्खन, आदि पदार्थ मानव की आवश्यकताओ को पूर्ण करता आया है। गाय के ऐसे ही गुणों के कारण उसे गौधन कहा गया। यज्ञ अनुष्ठान आदि के कार्यों में तो गोदान को प्रमुख दान बताया गया। अश्व तो हमारे वीरों की वीरता का परिचायक रहा।
प्राचीन काल में सनातन धर्म में तो अनेका-अनेक अश्वमेध यज्ञ किए जाते थे।
इस यज्ञ में छोड़ा जाने वाला अश्व यदि पकड़ लिया जाता तो युद्ध का संकेत होता एवं जिस राजा का वह अश्व होता उससे युद्ध के पश्चात वह राज्य विस्तार हेतु की गई कूटनीति ही कहलाता था। सनातन काल से चले आ रहे हमारे देवी देवताओं के वाहनों में पशु-पक्षी जीव जंतु आदि का होना भी बड़ा सटीक शास्त्र है।
इन सब जीवो का विशेष सम्मान हमें यह दर्शाता है हमारे धर्म विधि-विधान में सृष्टि जनक जीवो वस्तुओं पदार्थों धरोहरो को विशेष रूप से सहेज कर रखने की कला के प्रावधानों को भी जोड़ा गया।
यही कारण था कि मनुष्य ने सृष्टि के सभी उत्पन्न जीवों को विशेष स्थान दिया।
जल में विचरण करने वाले,थल के भीतर मृदा में निवास पाने वाले जंतु, वनों में विचरण करने वाले, वृक्षों के ऊपर निवास करने वाले, अनेका अनेक जंतु, जिन्हें सृष्टि ने जन्म देकर, विशेष स्थानों पर संरक्षण दिया।
उन सभी को सुख से जीवन जीने का अधिकार मनुष्यों ने दिया।
इन्हीं सोपानो पर चलकर हमारी सृष्टि में सर्वे संतु निरामया वाले आधार श्लोक को अपनाकर, जीवन जीना और अन्य को भी जीने देने का कार्य महान कार्य कहलाया। जियो और जीने दो की ये अंतर्निहित भावना मनुष्य ने सृष्टि से शिरोधार्य करके समाज एवं परिवार में भी अपनाई।
पंचतत्वो में, कण-कण में बिचरते जीवो पर,दया करना ही मानवता कहलाया। उसी निहित भावना से परिवार को भी पालना, एवं उसे सही मार्गदर्शन करना यह मनुष्य का पारिवारिक एवं सामाजिक नेतृत्वीकरण का गुण कहलाया