सर्वशक्तिमान ईश्वर जग के कण-कण में व्याप्त है।
हमारी सनातन धर्म परंपरा अनुसार अति प्राचीन ग्रंथ वेद एवं पुराणों के ज्ञान अनुसार, ईश्वर सृष्टि का कर्ता है। सृष्टि की रचना उसका संवर्धन, भरण-पोषण अंकुरण, स्फुरण आदि का प्रमुख रचेता वह परम शक्ति परमात्मा है।
वह कर्ता इतना सक्षम है, कि वह निर्गुण और सगुण रूप में सहज क्रिया कर सकता है।
सृष्टि के विभिन्न व्युत्पन्न वर्गीकरणों में उसका ही पुंज क्रियामान एवं विद्यमान है।
निषेचन, मैथुन सेतज जेरज जन्म के सभी कारकों का निर्माण करने वाला, पशु पक्षी जीव जंतु संसार के सभी सजीवों निर्जीवो का एकमात्र आधार वह ईश्वर ही है। संसार में अद्भुत अजूबों की सारी क्रियाओं को वह दाता अपने में ही समाहित किए हुए हैं। उसकी सर्वोत्तम कृति मानव है। मानव को ही उसने विशेष गुणों से आप्लावित किया है।
मानव के कर्म उसके साहस एवं शौर्य के गुणों से ही ईश्वर ने उसे ऐसी शक्ति प्रदान की है, कि वह ईश्वर की भी प्राप्ति कर सकता है।
विशेष गुणों का विधान लिए हुए मानव ऐसी संवेदनाओ भावनाओं से ओतप्रोत है जो कि जीवन की सभ्यता के प्रमुख सोपानो को समझते हुए उसके अनुरूप कार्य एवं भूमिका अदा करने की सशक्त मिसाल बन सकता है।
प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति, मर्यादा आदि हितकारी कार्यों का प्रचार प्रसार करने में मानव ने अपनी शक्ति दिखलाई।
समाज में अपना बर्चस्व एवं अपना पुरुषार्थ कायम करने हेतु उसने अपना विस्तार किया, लेकिन वह सृष्टि, प्रकृति रक्षण के नियमो से भली भांति जुड़ा था। शक्तिप्रदर्शन विस्तारीकरण की नीति के साथ साथ वह हमारे सनातन धर्म के अध्यात्म से भी जुड़ा रहा।
सृष्टि और समाज के दायित्व को उसने अपने से भी प्राथमिक समझा, तभी उसका परिवार एक समय चौधरी की भावना वाला परिवार कहलाया जब मानव समाज छोटे-छोटे कस्बों गांव में समुदाय नगर शहर राज्य अभी वर्गों में बंटा तब यह सामाजिक सौहाद्र सहयोग की भावना ही थी जिसने विषम परिस्थितियों में भी समाधान किया।
बड़े-बड़े साम्राज्य में कुशल सलाहकार, राजपुरोहित, विदूषक आदि का नियुक्त होना प्रमाण है, कि उस समय भी मानव की पारिवारिक, समाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, समस्याओं के समाधान हेतु इस प्रकार की व्यवस्था थी। मानवीय संवेदनाएं इन सभी आयामों पड़ावो से गुजरती थी।
तभी मानव अपनी सभी समस्याओं को आपस में ही सुलझा लिया करता था। अपने द्वारा किए गए बुरे कार्य पर पश्चाताप एवं आत्मंथन जैसी प्रक्रिया भी थी।
जिससे मनुष्यों की बुरी भावनाएं समूलतया नष्ट हो जाती थी। एवं उनके चरित्र का निर्माण होता था।
सृष्टि-समाज-परिवार इन सब को संतुलित रूप से साथ लेकर चलना ही मानव धर्म कहलाया।
उन सभी युगो में मनुष्यो की इस प्रकार की, क्रियात्मक गतिविधियां ही, उसे श्रेष्ठ मानव की विशेष पदवी प्रदान किया करती थी।