धर्म रक्षा हमारा कर्तव्य

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Dharam Raksha

धर्म की मान्यताओं को निभाने के साथ-साथ, उसकी मर्यादा की रक्षा हेतु, भक्तों ने सदाचारी मानवों ने बहुत से प्रयत्न किये।

अगर हम प्रारंभ से लें तो सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग में भी भक्तों का वर्चस्व कायम रहा है।

त्रेता से भी पहले सदाचारी, संस्कारी, मर्यादारचित विचारों के कारण जो संतान उत्पन्न हुई, वह भक्ति भाव से ओतप्रोत थे। वही मनुष्य, बालक-बालिकाएं भक्त कहलाए।

भक्त ध्रुव ने सात साल से लेकर दस वर्ष की अवस्था तक हरि नाम के परम पद की प्राप्ति की।

प्रहलाद ने नारायण विष्णु की भक्ति करके विष्णु के हृदय को जीत लिया एवं दुराचारी पिता हिरणकश्यप के अन्याय का अंत किया था।

यह कार्य तभी संभव हो पाया जब धर्म की, सदाचार की, संस्कारों की ज्योति उन भक्तों के हृदय में प्रज्वलित हो रही थी।

अगर हम आगे के युगों की बात करें तो यही परंपरा आगे चलकर त्रेता युग में दशरथ पुत्र राम में प्रसारित हुई।

उन्होंने रघुकुल वंश की परंपरा की रक्षा के लिए मर्यादा की सुरक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग किया।

माता पिता के वचन को निभाकर उन्होंने चौदह वर्ष का वनवास स्वीकारा। वहां भी उन्हे असुरों ने भली-भांति जीने ना दिया।

सीता का हरण हुआ, जिसके कारण उन्हें रावण का वध करना पड़ा। लंका की सेना से युद्ध करना पड़ा एवं असुरों की जाति का विनाश किया।

लेकिन यह सब तभी संभव था जब उनके अंदर मर्यादा की अखंड ज्योत विद्यमान थी। तभी उन्होंने धर्म की संस्कारों की पताका को युगो युगो तक,फहराने का साहस दिखलाया।

तत्पश्चात हम द्वापर युग की बात करें तो हम विष्णु अवतार श्री कृष्ण का प्रसंग लेते हैं। राजा कंस के अत्याचारों का नाश करने के लिए श्री कृष्ण ने मां देवकी के गर्भ से जन्म लिया। उनका पालन पोषण गोकुल में यशोदा एवं नंद जी के घर में पूर्ण हुआ।

बचपन कई प्रकार की लीलाओं मे व्यतीत हुआ। जो कौतूहल एवं वात्सल्य से भरा था। किशोरावस्था में ही उन्होंने कंस के अन्याय का शमन किया। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने निर्बल भक्तों का उद्धार किया।

सनातन धर्म की रक्षा, संस्कारों का विकास, एवं गीता के उपदेश द्वारा संपूर्ण मनुष्य जाति को, कर्म का वास्तविक संदेश दिया।

उन्होंने धार्मिक संस्कारों की रक्षा के साथ-साथ, मित्रता का भी परिचय दिया। सच्ची मित्रता किस प्रकार निभाई जाए, सच्चा प्रेम, सच्ची निष्ठा, किस प्रकार प्रतिपादित की जाए, इन विषयों पर विशेष जोर दिया और केवल कथनी ही नहीं इसे अपनी करनी के बल पर करके दिखलाया।

जिससे हम धर्म की शिक्षा पाते हैं, मर्यादा सीखते हैं, कर्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं, एवं जीवन जीने की कला का विकास करते हैं। इन्हीं महापुरुषों, अवतारों ने हमें समय-समय पर सच्चे धर्म का ज्ञान दिया। नैतिक मूल्यों का अवलोकन सिखाया एवं जीवन के मूलभूत तथ्यों के साथ जीना सिखलाया।

जिसके लिए हमारी सनातन धर्म की यह परिपाटी सदैव ऋणी रहेगी

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