राष्ट्र में सोहाद्र सदभाव की स्थापना हो सके, इसके लिए प्रमुख कदम उठाए गए हैं।
अगर हम अपने पूर्व समाज के ढांचे की बात करें तो, उस युग में वर्ण जाति-वर्ग-समुदाय आदि का निर्माण सर्वोपरि एवं प्रमुख था।
उसके अनुसार उन वर्गों के कार्य, रहन सहन, चरित्र की दशाओं का विवरण मिलता है।
वेदों के अनुसार मनुष्य के वर्गों को चार भागों में बांटा गया जिसमें प्रथम ब्राह्मण दूसरे क्षत्रिय तीसरे वैश्य और चौथे शूद्र कहलाए।
इसी प्रतिपादित स्थापना के अनुसार उनके कार्य भी मनोनीत एवं सुव्यवस्थित किए गए। जैसे ब्राह्मण का कर्म पूजा, पाठ, यज्ञ, तप, अनुष्ठान, आदि था।
क्षत्रिय का कार्य रणक्षेत्र में दुश्मनों से लड़ कर वीरता प्राप्त करना था।
सुरक्षा का कार्य क्षत्रिय वर्ग के मनुष्य किया करते थे, व्यापार का कार्य वैश्य वर्ग के हाथ आया एवं शूद्र जाति ने इन सब वर्गों की सेवा आदि कार्य मैं अपनी भूमिका निभाई।
लेकिन जब यह युग बदला, आज आधुनिक परिवेश में इन वर्ण जातियों का इतना बड़ा स्थान नहीं है।
आज हमारी समाजवादी भावना के अनुसार मनुष्य कोई भी कार्य कर सकता है।
इससे पूर्व कृषि उद्योग रोजगार युद्ध से सुरक्षा व्यापार वाणिज्य राजपुरोहित का कार्य चिकित्सा का कार्य उद्योगपतियों के बड़े पद कुछ विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित थे।
आज हमारे समाज में कोई भी शिक्षित होकर सर्वगुण संपन्न होकर किसी भी पद की प्राप्ति कर सकता है।
इसके लिए उसे प्राचीन वर्ग समुदायों की व्यवस्था को मानने की आवश्यकता नहीं है। आज के समाज में मनुष्य किसी भी जाति वर्ग एवं समुदाय का हो उसमे मानवता का होना सर्वोपरि गुण माना गया। इसी आधार पर हमारे समाज में धर्म मे एक नई सच्ची स्थापना हुई।
मनुष्य आज किसी भी जाति वर्ग समुदाय का हो वह अपनी क्षमता अनुसार धर्म के सदमारग के पथ पर चलकर उस परम तत्व की प्राप्ति कर सकता है। समाज में मनुष्य ने इसी प्रकार की कल्याणकारी व्यवस्था को प्रसारित करके मानवीय गुणों सात्विक गुणों एवं धार्मिक गुणो का समावेश किया। हमारे देश में हमारे समाज में सहयोग की भावना इसी धार्मिक परंपरा के अनुसार विस्तृत हुई जिसमे केवल मानवता को ही प्रमुख तत्व माना गया।
जैसे कि पूर्व लेख में मनुष्य का समाज में क्या योगदान है इस पर चर्चा हुई।
उसके पश्चात उसके अंदर धार्मिक भावनाएं इसी प्रकार समाहित हुईआज के परिवेश में मनुष्य प्राचीन जीर्ण सोच से उठकर नई सोच लेकर आगे बढ़ता है।
उसी सोच से धर्म के मायने भी परिवर्तित हुए लेकिन इन सब में जो परिवर्तित नहीं हुआ वह विशिष्ट तत्व मानवता ही था।
हमें जाति वर्ग समुदाय से उठकर ऐसी हीन भावना से निकलकर अपने समाज और राष्ट्र का विकास करना चाहिए। यही हमारे सामाजिक धार्मिक व्यक्तिगत जीवन का विकास कर सकता है।